राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में अब ऑटोइम्यून रूमेटिक बीमारियों को भी मिले तरजीह
नई दिल्ली : राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में अब ऑटोइम्यून रूमेटिक बीमारियों को शामिल करने की मांग उठने लगी है। ये वो बीमारियां हैें, जो सीधे तौर पर देश की युवा आबादी को प्रभावित कर रही है। जिस उम्र में एक युवा अपने पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने की दिशा में आगे बढता है, उसी उम्र में ऑटोइम्यून रूमेटिक बीमारियां युवाओं को लाचार बना रही है। ध्यान देने की बात यह भी है कि इस तरह की बीमारियों के प्रति उदासीनता देश की आर्थव्यवस्था के लिए भी बोझ पैदा कर सकता है।
स्वास्थ्य बीमा का नहीं है प्रावधान :
ऑटोइम्यून रूमेटिक बिमारियां जैसे एंकिलोजिंग स्पॉन्डिलाइटिस, ल्यूप्स, रूमेटाइड आर्थराइटिस जैसी बीमारियों के उपचार के लिए स्वास्थ्य बीमा का कवच मरीजों को नहीं मिलता। ऐसी बीमारियों को इस सुविधा से अलग रखा गया है। पुरानी व्यवस्था के मुताबिक इन बीमारियों को क्रिटीकल श्रेणी में नहीं रखा गया है। इनमें से ज्यादातर बीमारियों का उपचार लंबा या आजीवन करना पडता है। मौजूदा स्वास्थ्य नीति के तहत ऐसी बीमारियों को ओपीडी में उपचार के योग्य माना जाता है। इसके ठीक उलट अगर इन बीमारियों से पडने वाले प्रभाव का आकलन किया जाए, तो इसके नतीजे चौाकाने वाले साबित होते हैं।
आमतौर पर खराब लाइफ स्टाइल की वजह से होने वाली बीमारियां जैसे- मधुमेह, थायरॉइड, उच्चरक्तचाप, हृदय रोग आदि बीमारियों के लिए स्वास्थ्य बीमा का कवर मरीजों को दिया जाता है। जबकि, इन बीमारियों का भी प्रभावी उपचार नहीं है और जिंदगी भर मरीज को उपचार के सहारे ही रखा जाता है। हैरान करने वाली बात यह है कि मधुमेह भी एक ऑटोइम्यून श्रैणी की ही बीमारी है। बावजूद इसके इससे पीडित मरीजों को स्वास्थ्य बीमा की सुविधा दी जाती है। दूसरी ओर विशेषज्ञ ऑटोइम्यून रूमेटिक बीमारियों को क्रिटीकल मानते हैं। उनका तर्क यह है कि यह बीमारी मरीज के जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। उपचार नहीं मिलने पर ऐसे मरीज महज 30-40 वर्ष की आयु में ही विकलांग होकर लाचार हो जाते हैं। जबकि, अगर इन मरीजों को जरूरत के अनुरूप उपचार मिले तो इनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो सकता है और यह सामान्य जीवन जी सकते हैं।
ऑटोइम्यून बीमारियों के प्रति जागरूकता की कमी :
इन बीमारियों के प्रति सामाजिक जागरूकता की भी कमी एक चुनौती है। जानकारी के आभाव में मरीज समय रहते निदान के लिए नहीं पहुंच पाते। इन बीमारियों के उपचार में रूमेटोलॉजिस्ट को विशेषज्ञता हासिल होती है लेकिन जानकारी के अभाव में मरीज ऑर्थोपेडिक सहित अन्य दूसरे विशेषज्ञों के पास चक्कर लगाते हैं। जिसमें काफी वक्त बर्बाद होता है और जबतक वह रूमेटोलॉजिस्ट के पास पहुंचते हैं, तबतक शारीरिक नुकसान हो चुका होता है। इस बीमारी में होने वाले शारीरिक नुकसान को रिवर्स नहीं किया जा सकता। ऑटोइम्यून श्रेणी की ही बीमारी एंकिलोजिंग स्पॉन्डिलाइटिस के प्रति सामाजिक जागरूकता फैलाने और मरीजों की मदद के लिए मरीजों के एक समूह ने एक विशेष अभियान की शुरूआत की है।
कम्पेन अगेंस्ट एंकिलूजिंग स्पॉन्डिलाइटिस नाम से चल रहे इस अभियान में इस बीमारी से पीडित युवा शामिल हैं। लोगों को जागरूक करने के लिहाज से युवाओं के इस समूह ने Caasindia शुरू किया है। जहां ऑटोइम्यून और रेयर बीमारियों के बारे में प्रमुखता से सभी जरूरी जानकारी उपलब्ध कराई गई है। युवाओं के इस समूह ने यू-ट्यूब पर एक विडियो लाइब्रेरी भी तैयार किया है। जिसकी मदद से वह मरीजों को जागरूक करने और उनतक जानकारियों को पहुंचाने की पहल कर रहे हैं। इस अभियान के तहत कम्यूनिटी स्तर पर लोगों को जागरूक करने के लिए मिलाप नाम से एक अभियान भी शुरू किया गया है। जिसके माध्यम से छोटे-छोटे समूह में लोगों को इकट्ठा कर संगीत, नाटक और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के माध्यम से लोगों तक ऐसी बीमारियों की जानकारी शेयर की जा रही है।