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दिल्ली में चुनावी शंखनाद के साथ ही सियासी गहमागहमी शुरू हो गई है।

दिल्ली में चुनावी शंखनाद के साथ ही सियासी गहमागहमी शुरू हो गई है। सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए सभी राजनैतिक पार्टियां अपनी रणनीति तैयार कर चुकी है। इसी तैयारी का अहम हिस्सा है मतदाताओं का जातीय समीकरण। पिछले दो विधानसभा चुनावों के परिणामों पर गौर करें तो पता चलता है कि पूर्वांचली, पंजाबी, वैश्य और जाट मतदाताओं के हाथ सत्ता की चाबी है। ऐसे में इस बार भी सत्तासीन आप, भाजपा और कांग्रेस इन्हीं जातियों को साधने की रणनीति पर काम कर रही है।

एक समय था जब दिल्ली चुनाव में पंजाबी वोटरों की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी. 90 के दशक के अंत तक यह स्थिति बनी रही. लिहाजा दिल्ली की राजनीतिक में पंजाबी पृष्ठभूमि वाले नेताओं का प्रभुत्व देखने को मिलता था. लेकिन उदारीकरण के बाद हिंदी पट्टी में जनसंख्या के दबाव, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि के चलते शुरू हुए व्यापक विस्थापन ने दिल्ली के राजनीतिक मानचित्र को बदल दिया. धीरे-धीरे दिल्ली में पूर्वांचली वोटरों की संख्या बढ़ने लगी और यहां की राजनीति में ये तबका महत्वपूर्ण होता गया.
कांग्रेस से जुड़े एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, ‘‘दिल्ली में पूर्वांचली वोटर जिस दल के साथ गए उसकी जीत लगभग तय मानी जाती है. 2013 से पहले पूर्वांचल के वोटर कांग्रेस के साथ थे. आप देखें तो बिहार और उत्तर प्रदेश में भले कांग्रेस लम्बे समय से सत्ता में नहीं रही लेकिन दिल्ली में पन्द्रह साल तक सत्ता में रही. यह बिना पूर्वांचली वोटरों के सहयोग के मुमकिन नहीं था. 2012 में अन्ना आंदोलन के बाद बनी आम आदमी पार्टी की तरफ पूर्वांचली वोटरों का झुकाव हो गया जिसका नतीजा हुआ कि आम आदमी पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला. वैसा बहुमत दिल्ली के इतिहास में किसी को नहीं मिला है.’’
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आगे कहते हैं, ‘‘मैंने यह बदलाव अपनी आंखों से देखा है. बिहार और यूपी से पहले भी लोग दिल्ली रोजी-रोटी के लिए आते थे लेकिन वो यहां के स्थायी नागरिक नहीं बन रहे थे. 1995 के बाद दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्रों के किसानों को लगा कि खेती से फायदा नहीं हो रहा है तो उन्होंने अपनी जमीनों पर प्लॉट काटना शुरू कर दिया. और सस्ते दरों पर 25 गज और 50 गज ज़मीनें मिलने लगी. बिहार और यूपी से आए कमजोर तबके लोगों ने दिल्ली में बसने की चाह में जमीनें लेकर रहना शुरू कर दिया. एक बार जिस का जमीन से रिश्ता जुड़ जाय वह वोटर भी बन जाता और स्थानीय भी.’’
दिल्ली के नांगलोई, किराड़ी और बवाना जैसे इलाके, जहां भारी संख्या में पूर्वांचली रहते थे वहां शुरू-शुरू में पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं था. बिजली नहीं थी. पीने के पानी के लिए सब मिलकर चापाकल लगवाते थे या दूर से पानी भरकर लाते थे. धीरे-धीरे वहां सुविधाएं बढ़ी और सुविधाओं के साथ-साथ लोग भी बढ़ते गए. दिल्ली में बीजेपी की सरकार तो अस्त व्यस्त रही लेकिन शीला दीक्षित सरकार में इन इलाकों में काफी काम हुआ. इन इलाकों के लोग इस बात को स्वीकार करते हैं. यही वजह रही कि लंबे समय तक पूर्वांचली कांग्रेस का भरोसेमंद वोटर बना रहा.

दिल्ली में 26 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों में 20 प्रतिशत वोटर पूर्वांचली हैं. वहीं 10 विधानसभा क्षेत्रों में वोटरों की संख्या 50 प्रतिशत से ज्यादा है. ऐसे विधानसभा क्षेत्र संगम विहार, बुराड़ी, किराड़ी, विकासपुरी और उत्तम नगर है.’’
पहले जब चुनाव होता था तो वोट डिवीज़न पंजाबी, बनिया, सरकारी कर्मचारी, दिल्ली देहात और गरीब बस्तियों के आधार पर होता था लेकिन यह धीरे-धीरे बदल गया. भारत के विभाजन के बाद जब रिफ्यूजी आए तो यहां पंजाबियों की संख्या तेजी से बढ़ी और चुनाव में उनकी भूमिका मजबूत हो गई. साल 1982 में दिल्ली में एशियाड गेम हुआ तो काफी संख्या में मजदूर बिहार और उत्तर प्रदेश से यहां आए. इससे पहले उतराखंड, हिमाचल के पहाड़ी इलाकों से भी लोग आए थे. लेकिन जब बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से लोगों का आना शुरू हुआ तब दिल्ली जनसंख्या का स्वरूप तेजी से बदला. धीरे-धीरे इन लोगों का संपर्क अपने गांवों से कटता गया. वो यहां के वोटर हो गए. इस समय पूर्वांचलियों की तीसरी पीढ़ी दिल्ली में रह रही है और इसका असर यहां की राजनीति पर भी दिखने लगा है.’’
2013 में हुए विधानसभा चुनाव से पहले ज्यादातर पूर्वांचली वोटर कांग्रेस के समर्पित वोटर हुआ करते थे.
इसका सबसे बड़ा कारण था झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले लोगों के मन में बैठा डर. दरअसल दिल्ली में जितनी झुग्गी और कच्ची कॉलोनिया हैं उसे बसाने में कांग्रेस के कई बड़े नेताओं का हाथ था. उन लोगों ने इन लोगों के मन में डर बैठा दिया कि अगर बीजेपी या कोई और पार्टी सत्ता में आएगी तो उन्हें हटा देगी. दूसरी बात शीला दीक्षित जो मूलत: पंजाबी थीं लेकिन उनकी शादी यूपी के कन्नौज में हुई थी तो वो खुद को पूर्वांचली बताती रहती थीं. लेकिन 2012 में आम आदमी पार्टी के गठन और उसकी लोकलुभावन नीतियों के बाद पूर्वांचली वोटरों का झुकाव उनकी तरह हुआ.’’
पूर्वांचल यानी बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश. इन इलाकों में लम्बे समय से राजनीति में जाति का वर्चस्व रहा है. मतदाता जाति देखकर वोट करते रहे हैं तो क्या दिल्ली में भी इसी तरह से जाति देखकर या चेहरा देखकर वोट करते हैं.
पूर्वांचल के राजनीति में जो जाति आधारित वोट करने का अवगुण है वो पूरी तरह दिल्ली की राजनीति में नहीं आया है लेकिन धीरे-धीरे आ रहा है. यहां भी जो सवर्ण हैं वो सवर्ण को वोट करता है और जो दलित है वो दलित को लेकिन अभी ऐसा खुलकर नहीं हो रहा है

पूर्वांचली बहुल सीटें
किराड़ी (47 फीसदी), बुराड़ी (44 फीसदी), उत्तम नगर (40-42 फीसदी), संगम विहार (40-42 फीसदी), बादली (38 फीसदी), गोकलपुर (36 फीसदी), मटियाला (36 फीसदी), द्वारका (34-36 फीसदी) और नांगलोई में करीब 32 फीसदी लोग पूर्वांचल के हैं। इनके अलावा करावल नगर, विकासपुरी, सीमापुरी जैसे इलाकों में पूर्वांचलियों की बड़ी आबादी देखने को मिलती है।

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