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भारत सरकार द्वारा मजदूरों के सामाजिक सुरक्षा के उद्देश्य से कर्मचारियों के हितों के लिए भविष्य निधि कानून

नई दिल्ली – (अरूण शर्मा): भारत सरकार द्वारा मजदूरों के सामाजिक सुरक्षा के उद्देश्य से कर्मचारियों के हितों के लिए भविष्य निधि कानून व ई एस आई कानून बना तो दिये गए परन्तु यह आज तक सही ढंग से लागु नहीं हो पा रहे हैं समाजवादी कर्मचारी यूनियन के अध्यक्ष श्यामसुंदर यादव का यह मानना है कि जिन कर्मचारियों की सेवा समाप्त कर दी जाती है

औधोगिक विवाद अधिनियम 1947 मे.बनाया गया था जिसमें कर्मचारियों को तुरंत लाभ देने के.लिए समझोता अधिकारीयों की नियुक्ति मे कमी है श्रम न्यायालय में बोझ बढता जा रहा है श्रम न्यायालय मे.न्याय तो.मिल जाता है मगर उसको लागू करवाने की जिम्मेदारी श्रम विभाग की है श्रम विभाग उसे लागू नही करवा पाता है

तो श्रम विभाग श्रम न्यायालय द्वारा पारित ऐवारड की धनराशि की वसुली करने के लिए जिला संग्रह अधिकारीयों को वसुली प्रमाणपत्र भेज दिए जाते है लेकिन क्षेत्रीय एस डी एम मालिको से वसूली ही नहीं करते हैं जिस लापरवाही के चलते दिल्ली में हजारों मामले एस डी एम कार्यालय में वर्षा से लंबित पड़े हुए हैं

वसुली नहीं होने वज़ह से श्रम न्यायालय से मिला न्याय एस डी एम कार्यालय की बलि चढ़ गया माननिय दिल्ली हाईकोर्ट ने वसुली के ऐसे मामलों के वसुली के लिए दिशानिर्देश जारी करते हुए आदेश पारित किया है

 औद्योगिक वाद विवाद हैं जो औद्योगिक संबंधों में कोई असहमति हो जाने के कारण उत्‍पन्‍न होते हैं। औद्योगिक संबंध शब्‍द से नियोजक और कर्मचारियों के बीच; कर्मचारियों के बीच तथा नियोजकों के बीच परस्‍पर संवादों के कई पहलू जुड़े हुए हैं। ऐसे संबंधों में जब भी हितों को लेकर कोई विरोध होता है

तो इससे जुड़े किसी एक पक्ष में असंतोष पैदा हो जाता है और इस प्रकार औद्योगिक विवाद अथवा संघर्ष हो जाता है, यह विवाद कई रूप ले लेता है जैसे कि विरोध, हड़ताल, धरना, तालाबंदी, छंटनी, कर्मचारियों की बर्खास्‍तगी, आदि।

 औद्योगिक विवाद के कुछ मुख्‍य कारण इस प्रकार है:-

अधिक वेतन और भत्तों की मांग करना

बोनस का भुगतान करने और उसकी दर निर्धारित करने की मांग करना।

सामाजिक सुरक्षा के लाभों को बढ़ाने की मांग करना।

कार्य की अच्‍छी और सुरक्षित दशाओं जिसमें कार्य दिवस के घंटे, मध्‍यावकाश और कार्य के बीच-बीच में अवकाश और शारीरिक श्रम के लिए परिवेश की मांग करना।

श्रम कल्‍याण और अन्‍य लाभों में वृद्धि करने की मांग करना। उदाहरणार्थ, अच्‍छी कैंटीन, विश्राम, मनोरंजन और आवास की सुविधा, दूरवर्ती स्‍थानों की आने और जाने की यात्रा की व्‍यवस्‍था, आदि।

इसके अलावा, खराब कार्मिक प्रबंध; परस्‍पर विरोधी विधायी उपाय एवं सरकारी नीतियों; और मनोवैज्ञानिक घटकों जैसे कि कर्मचारी द्वारा उसकी आत्‍माभिव्‍यक्ति, व्‍यक्तिगत उपलब्धि और उन्‍नति की मूल आकांक्षा की तुष्टि करने के लिए अवसर प्रदान करने से इंकार करना, आदि के कारण भी श्रमिकों संबंधी समस्‍याएं हो सकती हैं।

भारत में, औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 सभी औद्योगिक विवादों की जांच पड़ताल एवं निपटान करने के लिए एक प्रमुख विधान है। इस अधिनियम में उन संभावनाओं की हड़ताल अथवा तालाबंदी की जा सकती है, उन्‍हें अवैध अथवा गैर-कानूनी घोषित किया जा सकता है,

कर्मचारी की जबरदस्‍ती कामबंदी, छंटनी, उसे सेवामुक्‍त करना अथवा बर्खास्‍त करने की दशाओं, उन परिस्थितियों जिनमें औद्योगिक इकाई को बंद किया जा सकता है और औद्योगिक कर्मचारियों तथा नियोजकों से जुड़े अन्‍य कई मामलों का उल्‍लेख किया गया है।

यह अधिनियम श्रम मंत्रालय द्वारा उसके औद्योगिक संबंध प्रभाग के माध्‍यम से प्रशासित किया जाता है। यह प्रभाग विवादों का निपटान करने के लिए संस्‍थागत ढांचों में सुधार करने और औद्योगिक संबंधों से जुड़े श्रमिक कानूनों में संशोधन करने से संबंधित है। यह सुनिश्चित करने के प्रयास से कि देश को एक स्‍थायी, प्रतिष्ठित और कुशल कार्यबल प्राप्‍त हो, जिसका शोषण न किया जा सके

और उत्‍पादन के उच्‍च स्‍तर स्‍थापित करने में सक्षम हो, यह केन्‍द्रीय औद्योगिक संबंध मशीनरी (सीआईआरएम) के साथ अच्‍छे तालमेल से कार्य करता है। सीआईआरएम जो कि श्रम मंत्रालय का एक संगठन कार्यालय है को मुख्‍य श्रम आयुक्‍त (केन्‍द्रीय) [सीएलसी (सी)] संगठन के नाम से भी जाना जाता है।

सीआईआरएम के प्रमुख मुख्‍य श्रम आयुक्‍त (केन्‍द्रीय) हैं। इसे औद्योगिक संबंधों को रखने, श्रम संबंधी कानूनों को लागू करने और केन्‍द्रीय क्षेत्र में व्‍यापार संघ की सदस्‍यता के सत्‍यापन का कार्य सौंपा गया है। यह निम्‍नि‍लिखित के माध्‍यम से सदभावपूर्ण औद्योगिक संबंधों को सुनिश्चित करता है :-

केन्‍द्रीय क्षेत्र में औद्योगिक संबंधों की निगरानी;

विवादों का निपटान करने के लिए औद्योगिक विवादों में हस्‍तक्षेप, मध्‍यस्‍थता और उनका समाधान करना;

हड़ताल और तालाबंदी को रोकने के लिए हड़ताल और तालाबंदी की संभावना की स्थिति में हस्‍तक्षेप; श्रम सन्नियमन या श्रम कानून (Labour law या employment law) किसी राज्य द्वारा निर्मित उन कानूनों को कहते हैं जो श्रमिक (कार्मिकों), रोजगारप्रदाताओं, ट्रेड यूनियनों तथा सरकार के बीच सम्बन्धों को पारिभाषित करतीं हैं।

औद्योगिक सन्नियम का आशय उस विधान से है जो औद्योगिक संस्थानों, उनमें कार्यरत श्रमिकों एवं उद्योगपतियों पर लागू होता है। इसे हम दो भागों में बांट सकते हैं अखिलेश पाण्डेय केंद्रीय इलाहाबाद विश्वविद्यालय उद्योग एवं श्रम सम्बन्धी विधान (Legislation pertaining to Factory and Labour), तथा

सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी विधान (Legislation pertaining to Social Security)

उद्योग तथा श्रम सम्बन्धी विधान में से वे सब अधिनियम आते हैं जो कारखाने तथा श्रमिकों के काम की दशाओं का नियमन (रेगुलेशन) करते हैं तथा कारखानों के मालिकों और श्रमिकों के दायित्व का उल्लेख करते हैं। कारखाना अधिनियम, 1948, औद्योगिक संघर्ष अधिनियम, 1947, भारतीय श्रम संघ अधिनियम, 1926, भृति-भुगतान अधिनियम, 1936, श्रमजीवी क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923 इत्यादि उद्योग तथा श्रम सम्बन्धी विधान की श्रेणी में आते हैं।

सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी विधान के अन्तर्गत वे समस्त अधिनियम आते हैं जो श्रमिकों के लिए विभिन्न सामाजिक लाभों- बीमारी, प्रसूति, रोजगार सम्बन्धी आघात, प्रॉविडेण्ट फण्ड, न्यूनतम मजदूरी इत्यादि-की व्यवस्था करते हैं। इस श्रेणी में कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948, कर्मचारी प्रॉविडेण्ट फण्ड अधिनियम, 1952, न्यूनतम भृत्ति अधिनियम, 1948, कोयला, खान श्रमिक कल्याण कोष अधिनियम, 1947, भारतीय गोदी श्रमिक अधिनियम, 1934, खदान अधिनियम, 1952 तथा मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 इत्यादि प्रमुख हैं। भारत में वर्तमान में 128 श्रम तथा औद्योगिक विधान लागू हैं।

वास्तव में श्रम विधान सामाजिक विधान का ही एक अंग है। श्रमिक समाज के विशिष्ट समूह होते हैं। इस कारण श्रमिकों के लिये बनाये गये विधान, सामाजिक विधान की एक अलग श्रेणी में आते हैं। औद्योगगीकरण के प्रसार, मजदूरी अर्जकों के स्थायी वर्ग में वृद्धि, विभिन्न देशों के आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में श्रमिकों के बढ़ते हुये महत्व तथा उनकी प्रस्थिति में सुधार, श्रम संघों के विकास, श्रमिकों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता, संघों श्रमिकों के बीच शिक्षा के प्रसार, प्रबन्धकों और नियोजकों के परमाधिकारों में ह्रास तथा कई अन्य कारणों से श्रम विधान की व्यापकता बढ़ती गई है। श्रम विधानों की व्यापकता और उनके बढ़ते हुये महत्व को ध्यान में रखते हुये उन्हें एक अलग श्रेणी में रखना उपयुक्त समझा जाता है।

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